जागतिक तापमान वृद्धि के पर्याय
लीना मेहेंदले, कार्यकारी निदेशिका (पी.सी.आर.ए)
पिछले दिसंबर में अपने यहाँ आया त्सुनामी कहर, हाल में अमरीका में आया कतरिना का तूफानी कहर क्या संकेत देते है? इसी वर्ष पहले गुजरात, फिर बिहार व मध्य प्रदेश, फिर मुंबई, महाराष्ट्र, फिर कर्नाटक और फिर मध्यप्रदेश,
बार बार बाढ की भयानकता झेलते रहे। ये सारे तथ्य उन प्राकृतिक कारणों से जुडे हैं, जिन पर विचार करने के लिये सामान्य आदमी हो या सरकार, सभी को बाध्य होना पडेगा।
मनुष्य निरंतर विकासशील प्राणी है। प्रगति और विकास के लिये धरती, अंतरिक्ष सहित सभी महाभूतों पर विजय पाने की क्षमता रखता है। लेकिन अंधाधुंद विजय हासिल करते रहने से उन्नति नही होती. विजय पचाना, उसे आत्मसात् करना एक अलग आयाम है। मनुष्य ने प्रकृति पर विजय तो पाई हो शायद, लेकिन यदि इसे आत्मसात् करके प्रकृति के साथ सामंजस्य नही पाया तो प्रकृति भी अपना बदला लेने से नही चूकेगी।
पिछले सौ वर्षो के इतिहास में जागतिक तापमान का ग्राफ प्रायः ऊर्ध्वमुखी ही बना रहा। अर्थात धरती पर वायुमंडल का तापमान बढता ही रहता। लेकिन पिछले दशक में भारी बढोतरी हुई है। यही तापमान वृद्धि त्सुनामी कतरीना या हाल में देशके कई राज्यों में झेली गई बाढ का कारण होती है। क्यों बढता है तापमान - इसका कारण समझना बहुत सरल है।
धरती के धरातल पर भारी मात्रा में कार्बन है। सारी जीव सृष्टि का आधार है कार्बन। यह कार्बन ज्वलनशील है। अर्थात् ऑक्सीजन से मिलकर यह कार्बन डायऑक्साइड बनता है और इसी प्रक्रिया में इससे गरमी निकलती है जो हम पकड पाये तो काम में ला सकते है। हमारे दैनिक व्यवहार के प्रमुख इंधन जैसे कोयला, लकडी, रसोई गैस, पेट्रोल, डिझेल, फ्युएल ऑईल और केरोसिन आदि सभी इंधन कार्बन आधारित हैं।
धरती के ऊपर जो भी कार्बन है, उसका अपना एक चक्र बना हुआ है। कार्बन जलता है, तो कार्बन डायऑक्साइड बनता है जो वायुमंडल में जा बसेगा। वहाँ से पेड उसे अपने श्र्वास में खींचेंगे और धूप कि सहायता से उसे कार्बन और ऑक्सीजन में विभाजित करेंगे। ऑक्सीजन तो वापस वायुमंडल में जायगा और कार्बन घन पदार्थ के रुप में पेडों के तने पत्त्िायों,
फूलों, फलों और बीज मे रहेगा। यही पेड बाकी जीवसृष्टि द्वारा खाये जाते है, तो कार्बन उनके शरीर का हिस्सा बन जाता है। कार्बव किसी तरह मिट्टी में चला जाय तो धातुओं के साथ मिलकर कार्बोनेट के रुप में वहाँ रहेगा। जीव का शरीर जब सडेगा, गलेगा या जलेगा तो उससे कार्बन डायऑक्साइड निकल कर हवा में जायगा चाहे वह जीव पेड पौधे हों, पक्षी हो या मनुष्य हो। इसी प्रकार जब हम खनिज पदार्थों से धातु निकालते हैं जैसे लोहा, तांबा, अलमुनियम इत्यादि, तब उनके साथ जुडा कार्बन फिर से कार्बन डायऑक्साइड बनकर हवा में चला जाता है।
इस प्रकार वायुमंडल से पेडों में वहाँ से अन्य प्राणियों के शरीर में, या कार्बोनेट के रुप में मिट्टी में, कार्बन वापस आता है। पेडों या जीवों का शरीर गलने पर फिर से वायुमंडल में कार्बन डायऑक्साइड के रुप में चला जाता है। इस प्रकार कार्बन चक्र चलता रहता है।
इस प्रकार वायुमंडल से पेडों में वहाँ से अन्य प्राणियों के शरीर में, या कार्बोनेट के रुप में मिट्टी में, कार्बन वापस आता है। पेडों या जीवों का शरीर गलने पर फिर से वायुमंडल में कार्बन डायऑक्साइड के रुप में चला जाता है। इस प्रकार कार्बन चक्र चलता रहता है।
धरती पर सूर्य किरणों से जो गरमी आती है, उसके लिये कार्बन डायऑक्साइड की परत एक तरफ दरवाजे का काम करती है। अर्थात् आती हुई गरमी तो इसकी परतें पार कर धरती तक पहुँच जाती है लेकिन रात में यही ऊर्जा अवरक्त किरणों के रुप में दुबारा वातावरण के बाहर छिटका देनी हो तो कार्बन डायऑक्साइड की परत उस पर कुछ मात्रा में रोक लगाती है।
किसी भी दिन वायुमंडल में कार्बन डायऑक्साइड की मात्रा एक खास लेव्हल से कम रही तो वह प्रयाप्त गरमी को छिटक कर वापस जाने देगी और वातावरण का तापमान नहीं बढेगा । उस खास लेव्हल से अधिक हो तो वह गरमी को रोक लेगा और तापमान बढायेगा । कुछ ऐसा ही इकतरफा दरवा.जे का काम शीशा भी करता है, इसलिए उसका उपयोग ग्रीन हाउसों में किया जाता है । वहाँ तो यह लाभकारी है लेकिन यही जब बड़े पैमाने पर वातावरण में घटित होता है, तब जागतिक तापमान में वृद्धि होती है जिससे फिर पहाड़ों और ध्रुवों पर जमी बर्फ़ पिघलने लगती है और बारिश या तूफान या बाढ जैसे कहर आ जाते है ।
इसी से यह जरूरी है कि धरती के धरातल पर जितना भी कार्बन है, जो कार्बन - कार्बन डायऑक्साइड में बँटा हुआ है, उनके बीच संतुलन ठीक से बना रहे । कार्बन डायऑक्साइड को पेड़ सोख लें जिससे वातावरण के तापमान में लगातार वृद्धि न हो । इस प्रकार पेड़ पौधों के माध्यम से कार्बन चक्र का संतुलन बना कर रखा जा सकता है ।
लेकिन मनुष्य ने एक दिक्कत पैदा कर दी - वह भी भारी मात्रा में । उन्नीसवीं सदी में आई औद्योगिक क्रान्ति ने चित्र पलट दिया। अब उद्योगों में भारी मात्रा में वस्तुओं का निर्माण होने लगा जिसके लिये उन्हें ईंधन की भारी आवश्यकता पड़ी । इसके लिये धरती के गर्भ से कोयला खींचा जाने लगा । धातुओं की आवश्यकता पड़ी तो धरती के गर्भ से खनिज निकालकर उनका शुद्धिकरण करने की फैक्टरियाँ लगीं - जैसे लोहा, अलमुनियम इत्यादि ! इनसे भी कार्बोनेट के रूप में बसा कार्बन फिर से कार्बन डायऑक्साइड बनकर वातावरण में वापस जाने लगा ।
फिर बीसवीं सदी के आरंभ में खनिज तेल की खोज हुई । भारी मात्रा में धरती गर्भ ले क्रूड ऑयल निकाला जाने लगा - उससे पेट्रोल डीजल केरोसिन, ख््रघ्क्र गैस इत्यादि बनने लगी जो ईंधन के लिए उद्योगों में या फिर वाहन चलाने में या फिर घरेलु रसोई में भी जलाये जाने लगे।
आज दुनिया भर में प्रतिवर्ष ३६० करोड टन खनिज तेल, २०० करोड टन तेल के बराबर गैस और २४० करोड टन तेल के बराबर कोयला धरती के गर्भ से बाहर निकाल कर उसे धरती की सतह पर लाया जाता है । इससे धरती के ऊपर स्थित कार्बन स्टॉक में प्रतिदिन भारी बढोतरी हो रही हे । वायुमंडल के कार्बन डॉयआक्साइड में भी बढत हो रही है। अर्थात् कार्बन को हवा में भेजने के सौ तरीके मनुष्य के पास हैं, लेकिन वापसी का एक ही तरीका है - पेड। वब रहेंगे तभी काम बनेगा। वह रहेंगे तो एक फायदा यह भी है कि ईंधन के लिये उनके बीज, पत्ते, तने काम आएंगे और हम धरती के अंदर गडे कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे। तो अब देर कैसी? करना है वही एक उपाय - पेड लगाने का।
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