Sunday, May 14, 2017

IASRD Key Note Address for Nashik seminar

Key Note Address

MS. Leena Mehendale IAS
Addl. Chief Secretary, Govt. of Maharastra

 ------------ some opening paras missing
मैंने ये देखा कि अभी हम इस तीसरे मुद्दे को बायो डीजल कार्बन क्रेडिट के सन्दर्भ में हम कैलकुलेशन नही करते, लेकिन अभी महाराष्ट्र सरकार ने वापस जाने से पहले मैं पेट्रोलियम मंत्रालय के पेट्रोलियम कर्न्जवेशन रिसर्च एसोशियन मैं थी। तो उस समय हमने कार्बन क्रेडिट कैलकुलेशन किया था। जिसमें इस तीसरे मुद्दे का भी परामर्श किया था तो उससे हमें ये पता चला कि जहां हमारी लागत मतलब ये मैं 2003 की बात कर रही हूं जो कि आज उसका हिसाब कुछ अलग शायद हो। लेकिन जब 2003 में हमने कैलकुलेशन किया था तो हमने ये देखा इसमें जितना हमारा खर्च बायो डीजल बनाने में आता है मार्केटिंग में जो खर्च आता है उसको मैं नही गिन रही हूं। लेकिन बनाने में जो खर्च आता है बायो डीजल का उसका करीब आधा हिस्सा यानि 50 प्रतिशत कार्बन हमें क्रेडिट के रेट से मिल जायेगा। अगर हम तीनों मुददों को उसमें शामिल करें।
            इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि इसकी एक अच्छी नीति विकसित हो सकती है जहां रूरल इम्पलाईमेंट की बात हो रही है। जहां हमारे गांव, कस्बों की बात हो रही है। लोगों के रोजगार और कुछ उत्पादक काम देने की बात हो रही है। यह उनके जी0डी0पी0 को बढाने की बात हो रही है। उनके ऊपर प्रत्येक व्यक्ति आय बढाने की बात हो रही है। मुझे लगता है कि 15-20 गांवों का एक क्लास्टर किया जाये और उसमें कितने भी किसान, जितने भी फोरिस्ट ऐरिया में जैट्रोफा लगा रहे हैं। उन सबको अगर एक इकाई में माना जाये उस इकाई में बीज या अखाद्य बीज निकालेंगे चाहे व जैट्रोफा हो, करन्ज हो, चाहे अन्य कोई अखाद्य बीज हो यह जितने भी तेल निकालेंगे उनसे जो तेल निकलेगा। क्योंकि वह बीज उगाने बाला है, चाहे वह किसान या वन कर्मचारी हो चाहे बीज इकठठा करने वाला आदिवासी हो वह खुद तेल नही निकाल सकता है। साधारणतः तेल बनाने बाली दूसरी इकाई होगी। जिसमें कम लोग होंगे उनको अगर उसी इकाई में शामिल कर लें और तेल से रिफाइन्ड के लिए ट्रान्सफिकेशन करने के लिए एक तीसरे श्रेणी का उद्योग होगा।
            तीसरी श्रेणी के लोग होंगे उनको भी अगर इसी इकाई में शामिल कर लें तो इस तरह करीब 20 गांवों की करीब-करीब 2 हजार एकड़ जमीन अगर हम इस इकाई के अन्दर हम ले लेते हैं तो करीब करीब हमने जो कैलकुलेशन किया था हमारे हिसाब से 3-4 करोड़ रूपये जो बायो डीजल बनाने के लिए, उसको बेचने के लिए 2 करोड़ का खर्च लगेगा तो उससे आने वाली आमदनी जो होगी वह एक ही होगी। उससे जो कार्बन क्रेडिट मिलेगा वो करीब 1 करोड़ के हिसाब से एक हिसाब किया था। और इस तरह प्रोजेक्ट रिपोर्ट बडी आसानी से बन सकती है। लेकिन इसकी एक बडी शर्त यह है कि हमें कार्बन क्रेडिट के जो अन्तर्राष्ट्रीय नियम हैं उसके जो राष्ट्रीय नियम हैं या जो अन्तर्राष्ट्रीय प्रोटोकॉल हैं उसकी तरफ हमें ध्यान देना होगा। ये जो अन्तराष्ट्रीय प्रोटोकॉल हैं उसके मुताबिक हम इस तरह से अपनी इकाई बना रहे हैं। बायो डीजल के मार्फत कार्बन क्रेडिट हम दूसरे प्रगति देशों से खरीद सकें। उसके लिए हमें अलग से सेमीनार, अलग से हो सकता है। वो सेमिनार एक दिन से काम नही चलेगा। वह 8-10 दिन तक चलाना पड़े। उसमें हमें लोगों को प्रशिक्षण देना होगा। उसकी बहुत आवश्यकता है। और एक दूसरी आवश्यकता और भी है कि अन्तर्राष्ट्रीय जो कार्बन क्रेडिट का जो प्रोटोकॉल होता है उस प्रोटोकॉल के मुताविक आप जो भी क्लेम करते हैं वो क्लेम किसी थर्ड न्यूटल ऐजेन्सी के द्वारा उस क्लेम का सत्यापित होना जरूरी होता है। तो हमारा यहां अभी इसी तरह की एक न्यूटल ढंग से निष्पक्ष जांच करके उसकी विशेषता सत्यापित करने वाली हमारे यहां ऐजेन्सियां नही हैं। तो छोटे पैमाने पर इस तरह की ऐजेन्सियों का स्थापित करना हमारे सामने प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए तभी हम कुछ कार्बन क्रेडिट का फायदा उठा सकते हैं। ये चीजें इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती हैं कि हम ये कहते हैं कि हमारा देश पूरी तरह से विकसित नही है या प्रगति नही है। तो प्रगति के रास्ते में हमारे साथ सामर्थ्य है। हमारा यह एक महत्वपूर्ण बिन्दु है कि हमारे देश अखाद्य बीजों की बहुत अच्छी मात्रा में हैं और देश के विभिन्न कोंनों में ये विविध तरह के बीज हमारे पास उपलब्ध हैं। जैसे कि शुक्ला जी ने बताया हमारे पास सिर्फ जैट्राफा या रतन जोत एवं करंज की बात नही करते हैं। हमारे पास और भी बीज हैं मैंने देखा है कि बिल्कुल आसाम में भी चले जाओ तो वहां पर भी जो बहुतया जंगलों में भी पाया जाने वाला एक वृक्ष नाहर है। जिसके बीज से भी तेल निकलता है। करन्ज जो हमारे हाईवे पर बहुत आसानी से लगाया जा सकता है। रतन जोत को हम हाईवे पर नही लगा सकते हैं। रतन जोत के लिए हमें वन भूमि चाहिए रतन जोत के लिए हमें खेती की बंजर जमीन चाहिए। करंज जो बंजर पर लगता है किन्तु वह वृक्ष रूप में ऊंचा चलता है। बड़ा वृक्ष वो बनता है। इसलिए हम हाईवेज पर भी लगा सकते हैं और बडे पैमाने पर करंज वृक्ष को हाईवे पर लगायें तो भी हम फायदा उठा सकते हैं। लेकिन ये सारा एक पहलू है कि हम अखाद्य बीजों का उत्पादन करें और उससे बायो डीजल बनायें।
            दूसरा महत्वपूर्ण पहलू जिस पर अभी भी मुझे नही लगता है कि भारत में बहुत अच्छा काम हो रहा है। मुझे लगता है उसकी शुरूआत भी नही हुई है। ये काम को वो काम हैं कि किस तरह से हम अपने कार्बन क्रेडिड का क्लेम बनाकर हम इसे अन्तर्राष्ट्रीय प्रोटोकॉल के तहत पेस करें। दूसरा ये कि हमारे यहां किस तरह के निष्पक्ष कर्न्सट्रेडिंसी या कर्न्सट्रिंग ऐजेन्सी बने जो निष्पक्ष रूप से किसी भी कार्यक्रम को योग्य करके सत्यापित करके अर्न्राष्ट्रीय बाजार में जो खरीदार हैं। जो हमारे कार्बन क्रेडिट पैसा देंगे। उनके पास हमारा जो ऑर्थिटिंग क्लेम पहुंचे और उनकी ये मान्यता हो कि हां आपने जो सत्यापित किया है वो ऑर्थिटिंग है। तो ये महत्वपूर्ण श्रेणी हैं जो हमारे लिए लेना बाकी है उसके लिए हमें एक दूसरी तरह का सेमीनार दूसरी तरह का अयोजन करना पडेगा।
            इसलिए मुझे खुशी है कि यहां पर ऐसोचाम जैसी एक संस्था के प्रतिनिधि मौजूद हैं, इंडियन ऑयल संस्था के प्रतिनिधि भी मौजूद हैं, क्योंकि ये उद्योग ऐसी नही है। ये एक इण्टर प्रेवियर्स आगे आयें। यहां औद्योगिक सभी लोगों को एक औद्योगिक संगठन बना कर के उसके बारे में अध्ययन करना पडेगा। और हो सकता है इसमें आप लोंगों को  पचास लोगों की एक प्रशिक्षण प्रोग्राम करें उनको उसी बारे में बतायें तो उसमें से दो या तीन इण्टर प्रेवियर्स बाहर निकल कर आयेंगे। तो यह एक बहुत जरूरी बात है जो कि यहां पर कहना जरूरी है।
            यहां छत्तीसगढ़ की भूमि में आ करके मैं बहुत खुशी से यह जाहिर करना चाहूंगी कि पी0सी0आर0ए0 में जब से ही हमने बायो डीजल के प्रोग्राम की तरफ ध्यान दिया उसी समय से मैं रायपुर का जो प्रोग्राम चल रहा है छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री और डी0एन0 तिवारी जी, शैलेन्द्र शुक्ला जी हैं, इनके काम के लिए मेरे मन में इनके लिए एडमिरेशन है। जैसा शुक्ला जी ने बताया कि ऐसा उददेश्य नही है कि एक टन के बजाय 100 बना रहे हैं। या 1000 टन बना रहे हैं या नही बना रहे हैं। उददेश्य यह है कि हम 1 टन बनाते हुए इसके सभी पहलू को सीख रहे हैं। और अगर सीखना भी सीख लें तो इसके माध्यम से अलग विषयों को जानलें तो हमको एक बहुत बडी उपलब्धि मिलेगी। मैं एक छोटी सी बात कहूंगी कि उन्होंने एक अहम मुददा उठाया कि डीजल परचेज पालिसी का मुझे लगता है जो भी कोई उत्पादक डीजल का उत्पादन एक फैक्ट्री लगाकर बड़े पैमाने पर करना चाहता है। तब वह ट्रेड में नही टिक सकता है। जब तक उसे हमेशा के आधार पर उत्पादन कराते रहो अगर उससे यह कहा जाये कि 15 दिनों तक बायो डीजल का उत्पादन करो और फिर उसे बंद करो तुम जो 3-4 हजार लीटर जो भी उत्पादन किया है तुम पहले उसको बेच लो दुनियां भर में दौड़ते रहो, खोजते रहोगे कि कहां इसका ग्राहक है। जब वह पूरा का पूरा बिक जाये फिर तुम एक नया बैज लेकर के फिर तीन हजार या दो हजार टन बायो डीजल बनाओ।
उसमें उसकी आर्थिक स्थिति नही बैठेगी तो जब तक हम ऐसी पॉलिसी नही बनायेंगे सरकार ऐसी नीति नही बनायेगी जिसमें बायो डीजल का उत्पादन एक लगातार आधार पर पूरे साल भर कम से कम 7-8 महीने बायो डीजल का उत्पादन कर सकें और उसे बेच सकें। इस तरह जब ऐसी सरकारी खरीदी पॉलिसी न बने तब तक हम बायो डीजल को एक बाजार के रूप में समाने नही ला सकते हैं। हो सकता कि हमें तब तक सरकार कोई ऐसी नीति नही अपनाती है जब तक हमें जो छोटे-छोटे उत्पादक हैं उनको डी सेन्टर लाइफड में ही उत्पादन करके रूक जाना पडेगा। मुझे नही लगता कि देश के लिए ये एक अच्छी बात होगी। लेकिन ये लगता है कि बडा काम नही हो सकता है तो हमें छोटा काम करते रहना चाहिए। इसलिए मुझे लगता है कि रायपुर में जो प्रयास हो रहे वो निरन्तर सफलता के साथ आगे बढते रहें उनका बहुत विशेष महत्व है। इसके लिए में सभी छत्तीसगढ़ वासियों को जो यहां पधारे हैं सको बधाई देते हुए और ये शुभकामना करते हुए कि हमारे देश में जो ग्लोबल वार्मिंग की समस्या है। अभी छत्तीसगढ़ में शायद आप लोगों को उतनी तीव्रता नही झेलनी पड़ रही है, जितना मुझे महाराष्ट्र में देखने को मिलता है। हमारे यहां सूखे की इतनी भयानक परिस्थिति है और पूरे देश में करीब करीब 60 प्रतिशत देश में आज जो सूखे की परिस्थिति आ रही है तो कई बार तो लोग ये कहते हैं ग्लोबल वार्मिंग इतनी बढ़ने बाली है कि शायद 10 साल के अन्दर अन्दर बम्बई भी डूब जायेगी। इस तरह की जो बातें सामने आती हैं तो हमेशा ऐसा लगता है हम कहीं न कहीं बहुत तेजी से जो कोयला धरती से निकाल रहे हैं, पेट्रोलियम पदार्थ निकाल रहे हैं विकसित देश जो हैं वो अपने विकास को कैसे मापते हैं तो वे ऐसे मापते हैं कि हमने कितनी ऊर्जा खपत कर ली है। यानि कितनी ऊर्जा हमने खा ली तो हम विकसित देश हो गये। तो ये एक मनोवृति है कि जितनी अधिक ऊर्जा आप खर्च करो उतना ही आप समझ लो कि अपने नाम का विकसित होने का प्रमाण पत्र तैयार कर लिया है इसको भी हमको कहीं कहीं रोकना पड़ेगा कि ऊर्जा तो हम खपत करें लेकिन कम से कम खपत के साथ हमें बहुत जोर देने की आवश्यकता है। ये सारे पहलू मुझे लगता है कि सेमीनार में उजागर होंगे और मुझे यहां आने के लिए आपने बुलाया इसके लिए आयोजकों का और स्पोंसर्स हैं उनका सभी का धन्यवाद करते आप सभी से विदा लेती हूं। जय हिन्द।