Wednesday, April 24, 2019

जीवेम शरदः शतम्


जीवेम शरदः शतम्
भूमिका

भूमिका
आज हमें फिर से संकल्प लेना है कि हम सौ वर्ष तक जियेंगे और एक स्वस्थ जीवन जियेंगे मनुष्य अपने जीवन में क्या क्या चाहता है? सबसे पहले आरोग्यं धनसंपदा का नाम लिया जाता है।

प्राचीनतम कालसे भारत की परम्परा रही है कि हम स्वास्थ का विचार करें। वह भी केवल शरीर का नही वरन मन का, चित्तका, बुध्दिका, समाजिका, पर्यावरणका, विश्वका स्वास्थ भी हमारे देशमें चिन्तनका विषय रहा है। इसे कई प्रकार के सूत्रों में कहा गया शरीर आप्दं खलु धर्मसाधनम् या, जीवेम शरदः शतम् या, मृत्योर्मा अमृतं गयय या, सर्वे सन्तु- निरामखाः। परन्तु वर्तमान भारतीय जीवन में स्वास्थ संपादन पीछे छुट गया है। वही दुबारा करना पडेगा। इस समता में अंतर्निहित विचार करने हुए कई मुद्दे उठेंगे। हमारा खान-पान हमारी आदतें, व्यवहार, सोच इत्यादि।
(आइयें इन्हें हम क्रमशः देखें)
१. हमारा अन्न 
२. पानी 
३. सांसें
४.स्वास्थ्य - व्यवस्था 
५. सूर्य -- एक वरदान
६. बाजारीकरण में स्वास्थ्य
७. विकलाङ्गता
८. विचार पध्दति
९. स्वास्थ का अध्यात्म

भाग १ हमारी सांसें
जीवन के लिये सर्वाधिक आवश्यक है श्वास- ऊच्छ्वास अर्थात, सांस लेना और सांस छोडना कहते ही जन्म अपनी गिनती की सांसे लेकर ही जन्म लेता है और वह गिनति पूरी होने पर उसकी जीवनयात्रा पुर्ण ही जाती है।
इसलिए यदि मुझे सौ वर्ष की आयु चाहिये तो मुझे अपनी सांसों पर ध्यान देना फडेगा। इसी के क्रम में हम आगे प्राणायाम की चर्चा करेंगे।
हमारी औऱ पूरी सजीव सृष्टि सांसों के लिये अत्यावश्यक घटक है वृक्ष वनस्पतियाँ। पूरी सजीव सृष्टि कों दो भागों में बांटा जा सकता है। एक तरफ वे सारे जीवजन्तु तो सांस लेते हैं तो आँक्सिजन प्राणवायु अर्थात सांस को अन्दर लेते हैं और उच्छास में कार्बन डायआँक्साइड को बाहर छोडते है। दुसरी तरफ है सारी वृक्ष लगाएँ वनस्पतियाँ और हरियाली जो कार्बन डायआँक्साइड को अंदर लेंती हैं उसके कार्बन और आँक्सीजन को पृथक् करती हैं और कार्बन को बाहर छोडती हैं औऱ कार्बन को अपने खाद्द् के रुपमें संजोकर रख लेती हैं। कार्बन से उनका पोषण होता है और उनके छोडे आँक्सीजन कारण हमारी सांसें चलती है।
इसी लिये हम स्मरण रखें कि जब एक पेड काटा जाता है, तब हमारी सबकी एक सांस घट जाती है। यदि दीर्घायु चाहिये तो वृक्षों की रक्षा का व्रत लेना होगा।

वनस्पती सृष्टि को भी हम दो भागों में बाँट सकते हैं। एक को हमने औषधि की संज्ञा है। ये अल्पजीवी है दो -तीन ऋतुओं तक जीते है और हमारे खाद्यान्न के रुप में काम आते है जैसे चावल, जौ बाजरा, चना और सारी शाकभाजिय़ाँ। औषधि शब्द का अर्थ ही है ऊर्जादायी या पोषण करने वाला तो यह सारे धान्य शाक आदि पकने पर हमारे नित्य भोजन का हिस्सा बनकर हमें ऊर्जा पोषण देते हैं। लेकिन पकनेसे पहले भी जब तक यह जमीन पर फलफूल रहे होते हैं। तब भी हमारे लिये उपयोगी आँक्सीजन की निर्मिती करते ही हैं।

यहाँ एक अत्यंत विचारणीय मुद्दा उत्पन्न होता है कि देश का विकास निती कृषि प्रधान उद्योग प्रधान। देश को यदि कृषिरूपी हरियाली मिलती रहेगी तो साथ साथ आँक्सीजन भी मिलता रहेगा जो मनुष्य की साँस चलने के लिये आवश्यक है। एक आधुनिक रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2018 में पूरे विश्वमें जो कार्बन डायआँक्साइड का उत्सर्जन हो रहा था, उसका आधिक परिमार्जन केवल उस हरियाली के कारण था जो भारत चीन में खेती के कारण जमीन संरक्षक कबचके रूपमें छाई रिपोर्ट हमें अपनी विकास नीतिपर समग्रता से विचार करने के लिये बाध्य कर देता है।


ओषधी से अलग प्रभाग है वनस्पतियों का। जिसमे वृक्ष, लता, पैड, पौधे आदि आते है इनकी लम्बी आयु होती है और हर क्षण वायुमंडल से हवा का कार्बनडायऑक्साइड लेकर उसके ऑक्सीजन को बाहर छौडते हुए कार्ब को अपने खाद्यान्न के हेत बटेरते रहते है।फुल, फल आदि के लिये आवश्यक कार्बन उपयोग में लाने के बाद अधिक बचा हुआ कार्बन इनके तन में इकत्रित होता है। जब तक पेड जीवीत है तब तक यह कार्बन उसके तन में कैद है और वायुमंडल से बाहर है। लेकिन जब इन वृक्षों काटने से या गिरने से मृत्यु हो जाती है तब यह कार्बन मुक्त होकर वायुमंडल का ऑक्सिजन सोखते हुए फिर कार्बनडायऑक्साइड को बढता है।
इसलिए जो वृक्ष जितनी अधिक आयु का होगा, उतना ही उसमे बद्ध किया कार्बन भी अधिक होगा। और उसे गिराने पर कार्बनडायऑक्साइड भी बढेगा।
इसलिए सासों का विचार कहता है कि पहले तो पेड को काटो ही यत। और यदि काटा भी तो अनावश्यक रुपसे जलाओ मत, बल्कि मिट्टि में ढल जाने दो।

गिरे हुए बडे बडे वृक्षों को गलाने के लिये सृष्टीने एक युक्ति रची है जिसका नाम है दीमक ये अत्यंत वेग से पेडों की छाल को कुरेदकर टुकडों के रुप में अपनी बाबी में ले जाते है। वहॉं उनपर फफूंदी लगती है जो पेडों के सेल्यूलोज को तेजीसे विघटित कर सकती है। बाह में जिस फफुंदी को दीमक का अन्न के रुप में खा जाते हैं।

पेडों के संबंध में एक मजेदार बात और है। भूकंप इत्यादिसे यदि जमीन धसंती है तो बडी संख्या में वृक्ष जमीन के अंदर समा जाते है। हजारों वर्षों तक दबे रहने के बाद वे या तो कोयले या क्रूड पेट्रोलियम में परिवर्तित हो जाते हैं। इसी पद्धती से हजारों वर्ष पुराने भुकंपों में धंसे हुए वृक्षों से बना कोयला औऱ पेट्रोलियम हम आज जमीन के अंदर से निकाल कर जला रहे हैं और अपनी ऊर्जा की आवश्यकता को पूरा कर रहै है।
तो यह हुआ वृक्ष विचार जो सॉसों से संबंधित है। सॉसे जिनके बिना संभव नही।

हमारा जल
जल के विषय में मैंने कभी लिखा था जल जीवन है, मधुर है, शीतल है, तरल है.
जल एक नाम जीवन है और यह बहुत सार्थक है। क्योकि जलके बिना जीवन संभव नही है।
भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि सृष्टी की उत्पत्तिसे पहले परमेश्वर ने जल की चना की और उसी के अंदर सहस्त्र वर्षों तक पडे पडे तरना , तब उस जलसे ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति हुई। अण्डे से ब्रम्हा निकले, फिर उन्होंने सृष्टिकी रचना की।
हम भुगोल की पुस्तक में पढते हैं कि धरती पर तीना चौथाई भाग जल है और एक चौथाई जमीन लेकिन इस जलका अधिकांश भाग खारा है। केवल..... प्रतिशत ही मीठा जल है जो पीने या खेती के कामके लिये उपयुक्त है। यही मीठा जल हमें बर्फीले पहाडों पर और बहनेवाली नदियों में मिलता है।
पुरे ब्रम्हाण्ड में पृथ्वी से अलग कुछ ग्रह हो सकते हो जिनपर जल होने की और उसी कारण जीवन होने की संभावना है लेकिन अभी तक तो मनुष्य ऐसे ग्रह को नही खोज पाया है।
जलचक्र क्या है? समुद्र का पानी सूरज को ताप से भाप बनकर ऊपर उठता है। वहॉ वह बादल का रुप धारण करता है। हवा के कारण बादल इधर-उधर उडते हुए पृथ्वी के हिस्से पर आते है। वहॉ उंचे पर्वतों के शिखरों में अटका कर रुक जाते हैं। और उस उंचाई पर उगनेवाले पेडों के कारण हण्डे हो जानेपर वे बरसने लगते है। इस प्रकार वर्षा होती है। पहाडों से झरने नदियों में बहते हुए यह पानी समुद्र तक पहुचता है। इसी को जलचक्र कहते है।